न जाने कब काम विरहीत स्वामी मेरा मन होगा ।
न जाने सदगुरु कब आपका मुझे दर्शन होगा।।
बिते न जाने जन्म कितने और कितनीं बदली मैंने काया।
फिर भी भ्रम में मैं लिपटा निरंतर,मोह से न छुट पाया।।
जन्मों से बैठे आस लगाए , स्वामी मुझ पर आँखे बिछाए ।
मै ही नादान,कमजर्फ,कमीना तेरी तगमग न समझ पाया।।
मैं खड़ा इस किनारे और तू उस पार राह तक रहा।
बिच में दरिया उफान पे है, कैसे अब मैं पोहचू वहाँ।।
मैं हूँ एक मुर्ख मर्त्य जीव ,भवार्ण तैरु मुझ में ऐसी शक्ति कहाँ।
शरण आया हूँ आपको सदगुरु अब आपही ले चलो मुझे वहाँ।।
मैंने आपको मनुष्य समझा ,सदगुरु ये मेराही दुर्गुण रहां।
आप हो स्वयं त्रिमुर्ति स्वामी आपसे भला क्या न हुआ ?
स्वामी बंद करो अब खेल ये तेरे और लेलो मुझको अपनी शरण।
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त
🙏🔥🙏
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