इन्द्र
और विरोचन सत्य के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए तत्पर थे। वे दोनों प्रजापति के पास गए और उनसे आत्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। प्रजापति ने उन्हें बताया कि आत्मा पाप, वृद्धावस्था, मृत्यु, शोक, भूख, और प्यास से मुक्त है; यह केवल वास्तविकता की इच्छा करती है और सत्य का ही विचार करती है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए इन्द्र और विरोचन ३२ वर्षों तक प्रजापति के आश्रम में रहे और कठिन तपस्या की।
३२ वर्षों के बाद, प्रजापति ने उन्हें पहला उपदेश दिया। उन्होंने इन्द्र और विरोचन को एक जल का पात्र दिया और उसमें अपनी छवि देखने के लिए कहा। उन्होंने कहा, "यह आत्मा है।" दोनों ने जल में अपनी परछाई देखी और सोचने लगे कि यह शरीर ही आत्मा है। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आत्मा वही है जो हम अपने शरीर के रूप में देखते हैं।
विरोचन
इस उत्तर से संतुष्ट हो गए और असुरों के पास लौटकर उन्हें सिखाया कि शरीर ही आत्मा है। असुर तब से भौतिक सुखों और शरीर के पालन-पोषण को ही आत्मा का उद्देश्य मानने लगे।
लेकिन
इन्द्र को इस उत्तर से संतुष्टि नहीं मिली। वह सोचने लगे कि शरीर तो वृद्ध होता है, बीमार होता है, और अंत में मृत्यु को प्राप्त होता है। फिर यह कैसे आत्मा हो सकता है? इस संदेह के साथ, इन्द्र प्रजापति के पास लौट आए और उन्हें अपने संदेह के बारे में बताया।
प्रजापति इन्द्र की सच्ची जिज्ञासा को देखते हुए उन्हें और ३२ वर्षों तक तपस्या करने का आदेश देते हैं। इन्द्र इस बार भी अपने तप में जुट जाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, इन्द्र को बार-बार नए-नए ज्ञान प्राप्त होते रहे। हर बार वे आत्मा के एक गहरे स्तर की समझ प्राप्त करते गए, और अंततः १०१ वर्षों की तपस्या के बाद प्रजापति ने उन्हें आत्मा का वास्तविक स्वरूप बताया।
अंत में, इन्द्र ने आत्मा के उस शुद्ध चेतना के रूप को समझा जो शरीर, मन, और बुद्धि से परे है। उन्होंने जाना कि आत्मा शाश्वत, अनंत और ब्रह्म के साथ एकरूप है।
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